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कविता

रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता

महादेवी वर्मा


रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता;
इस निदाघ के मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता !

उसमें मर्म छिपा जीवन का,
एक तार अगणित कंपन का,
एक सूत्र सबके बंधन का,
संसृति के सूने पृष्ठों में करुणकाव्य वह लिख जाता !

वह उर में आता बन पाहुन,
कहता मन से, अब न कृपण बन,
मानस की निधियाँ लेता गिन,
दृग-द्वारों को खोल विश्वभिक्षुक पर, हँस बरसा आता !

यह जग है विस्मय से निर्मित,
मूक पथिक आते जाते नित,
नहीं प्राण प्राणों से परिचित,
यह उनका संकेत नहीं जिसके बिन विनिमय हो पाता !

मृगमरीचिका के चिर पथ पर,
सुख आता प्यासों के पग धर,
रुद्ध हृदय के पट लेता कर,
गर्वित कहता ‘मैं मधु हूँ मुझसे क्या पतझर का नाता’ !

दुख के पद छू बहते झर झर,
कण कण से आँसू के निर्झर,
हो उठता जीवन मृदु उर्वर,
लघु मानस में वह असीम जग को आमंत्रित कर लाता !

(रश्मि से)
 


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